सदगृहस्थों के आठ लक्षण | 8 Qualities of Householders in Hindu Culture

सदगृहस्थों के लक्षण बताते हुए महर्षि अत्रि कहते हैं कि अनसूया, शौच, मंगल, अनायास, अस्पृहा, दम, दान तथा दया – ये आठ श्रेष्ठ विप्रों तथा सदगृहस्थों के लक्षण हैं । यहाँ इनका संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा हैः  

अनसूयाः  जो गुणवानों के गुणों का खंडन नहीं करता, स्वल्प गुण रखने वालों की भी प्रशंसा करता है और दूसरों के दोषों को देखकर उनका परिहास नहीं करता – यह भाव अनसूया कहलाता है । 

शौचः  अभक्ष्य-भक्षण का परित्याग, निंदित व्यक्तियों का संसर्ग न करना तथा आचार – (शौचाचार-सदाचार) विचार का परिपालन – यह शौच कहलाता है) 

मंगलः  श्रेष्ठ व्यक्तियों तथा शास्त्रमर्यादित प्रशंसनीय आचरण का नित्य व्यवहार, अप्रशस्त (निंदनीय) आचरण का परित्याग – इसे धर्म के तत्त्व को जानने वाले महर्षियों द्वारा ʹमंगलʹ नाम से कहा गया है । 

अनायासः  जिस शुभ अथवा अशुभ कर्म के द्वारा शरीर पीड़ित होता हो, ऐसे व्यवहार को बहुत अधिक न करना अथवा सहज भाव से आसानीपूर्वक किया जा सके उसे करने का भाव ʹअनायासʹ कहलाता है ।  

अस्पृहाः  स्वयं अपने-आप प्राप्त हुए पदार्थ में सदा संतुष्ट रहना और दूसरे की स्त्री की अभिलाषा नहीं रखना – यह भाव ʹअस्पृहाʹ कहलाता है । 

दमः  जो दूसरे के द्वारा उत्पन्न बाह्य (शारीरिक) अथवा आध्यात्मिक दुःख या कष्ट के प्रतिकारस्वरूप उस पर न तो कोई कोप करता है और न उसे मारने की चेष्टा करता है अर्थात् कियी भी प्रकार से न तो स्वयं उद्वेग की स्थिति में होता है और न दूसरे को उद्वेलित करता है, उसका यह समता में स्थित रहने का भाव ʹदमʹ कहलाता है । 

दानः  ʹप्रत्येक दिन दान देना कर्तव्य हैʹ - यह समझकर अपने स्वल्प में भी अंतरात्मा से प्रसन्न होकर प्रयत्नपूर्वक यत्किंचित देना ʹदानʹ कहलाता है । 

दयाः  दूसरे में, अपने बंधुवर्ग में, मित्र में, शत्रु में, तथा द्वेष करने वाले में अर्थात् सम्पूर्ण चराचर संसार में एवं सभी प्राणियों में अपने समान ही सुख-दुःख की प्रतीति करना और सबमें आत्मभाव-परमात्मभाव समझकर सबको अपने ही समान समझकर प्रीति का व्यवहार करना  – ऐसा भाव ʹदयाʹ कहलाता है ।  

महर्षि अत्रि कहते हैं, इन लक्षणों से युक्त शुद्ध सदगृहस्थ अपने उत्तम धर्माचरण से श्रेष्ठ स्थान को प्राप्त कर लेता है, पुनः उसका जन्म नहीं होता और वह मुक्त हो जाता हैः यश्चैतैर्लक्षणैर्युक्तो गृहस्थोઽपि भवेद् द्विजः। स गच्छति परं स्थानं जायते नेह वै पुनः।।      (अत्रि संहिताः 2.42)